(1)
अधपकी रोटी का कोर खाते उसकी आँखों में नमी
और जुबां पे छप्पन भोग का स्वाद घुला है ।
बेटी के हाथों सिकी पहली रोटी मां की थाली में है ।।
(2)
मीठे चश्मे सी निकलती है पहाड़ से नदी
और जीवन संवार देती है मैदानों का ।
दो कुलों को बसा दिया प्रकृति से बेटी जो ठहरी ।।
XXXXX
खुबसूरत लफ़्ज़ों के साथ...मन के भाव बहुत ख़ूबसूरत ढंग से आपके शब्दों में ढल कर मुखर हो जाते हैं ।
जवाब देंहटाएंआपकी प्रोत्साहन भरी प्रतिक्रिया सदैव मनोबल बढ़ाने वाली होती हैं बहुत बहुत धन्यवाद संजय जी .
हटाएंबहुत ही लाजवाब ... अर्थपूर्ण और दिल को छूती हुयी दोनों त्रिवेनियाँ ...
जवाब देंहटाएंबेटी से जुड़ी पंक्तियाँ सीधे दिल में उतर रही हैं ...
बहुत बहुत धन्यवाद नासवा जी . आपकी ऊर्जावान प्रतिक्रिया सदैव बेहतर लेखन हेतु मार्गदर्शन करती है.
हटाएंअर्थपूर्ण और प्रभावी रचना
जवाब देंहटाएंतहेदिल से शुक्रिया ज्योति जी .
हटाएंआपकी लिखी रचना "मित्र मंडली" में लिंक की गई है https://rakeshkirachanay.blogspot.in/2018/04/63.html पर आप सादर आमंत्रित हैं ....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंमेरी लिखी रचना 'त्रिवेणियाँ" को "मित्र मंडली" में लिंक कर के मान देने के लिए तहेदिल से शुक्रिया राकेश जी .
हटाएं