चाँद निकलता है रात में,
लेकिन कभी कभी
यह दिन में भी
दिखता है ।
फर्क बस इतना है
रात वाला चाँद,
धुला धुला सा
निखरा और उजला सा ,
पेड़ों की फुनगियों से झांकता
दुख में दुखी
दुख में दुखी
और खुशियो में ....,
"चार चाँद लगाता”
दिखता है ।
लेकिन दिन वाला चाँद ,
"चार चाँद लगाता”
दिखता है ।
लेकिन दिन वाला चाँद ,
खून निचुड़ा सा
रूई का सा फाहा
शक्ति हीन और श्री विहीन
हालात का मारा
आम आदमी सा
दिखता है ।
दिखता है ।
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आदरणीय / आदरणीया आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर 'सोमवार' १२ फरवरी २०१८ को साप्ताहिक 'सोमवारीय' अंक में लिंक की गई है। आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/
जवाब देंहटाएंटीपें : अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार, सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।
ध्रुव सिंह जी अत्यन्त आभार निमन्त्रण एवं सम्मान हेतु.
हटाएंबेहद हृदयस्पर्शी रचना मीना जी...वाहह
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार श्वेता जी.
हटाएंवाह!!मीना जी ,बहुत उम्दा।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार शुभा जी.
जवाब देंहटाएंवाह
जवाब देंहटाएंधन्यवाद राजीव जी.
हटाएंबहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद ज्योति जी.
हटाएंसवाल उठता है -आम आदमी 2015 वाला या आम आदमी 2018 वाला? पहले वाला आम आदमी तो रात के चाँद की तरह दमकता था पर आज का आम आदमी दिन के चाँद की तरह मलिन और आभा-हीन है.
हटाएंवही आम आदमी जो मूलभूत सुविधाओं से वंचित है और उन्हें पाने के लिए सपने देखता है. बहुत लम्बे समय के बाद अपने ब्लॉग पर आपकी प्रतिक्रिया स्वरूप उपस्थिति देखकर खुशी हुई.
हटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंसार्थक तुलना ... सीन में सूरज का राज जो होता है ...
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार नासवा जी.
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