बड़े अजनबी होते हैं शहर
हाथ बढ़ाओ तो भी
दोस्ती नही करते बस
अपनी ही झोंक में रहते हैं
गाँव के तो पनघट भी बोलते हैं
कभी कनखियों से
तो कभी मुस्कुरा के
फुर्सत हो तो हवा के झोकों संग
कभी कभी हाल-चाल भी
पूछ लिया करते हैं
शहरों की बात ही अलग है
अपनी ही धुन में भागे जाते हैं
और तो और…..,
जिस लिफ्ट से हजार बार गुजरो
अजनबी ही रहती है कुछ इमरजेन्सी नम्बरों और
बटनों के साथ बस घूरती .....,
बटनों के साथ बस घूरती .....,
एक खट् की आवाज मानो कह रही हो---
“अब उतर भी जाओ ।”
XXXXX
बिल्कुल सही शहरी संस्कृति और कंक्रीट बोते इंसान अब भागती दौड़ती ज़िंदगी की सहूलियत में खुद भी रोबोट में ही तब्दील होते जा रहे है।
जवाब देंहटाएंविचारणीय सुंदर रचना मीना जी।
रचना सराहना के लिए तहेदिल से शुक्रिया श्वेता जी.
जवाब देंहटाएंबहुत सही और बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद ज्योति जी.
जवाब देंहटाएंआदरणीय / आदरणीया आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर 'सोमवार' १९ फरवरी २०१८ को साप्ताहिक 'सोमवारीय' अंक में लिंक की गई है। आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/
जवाब देंहटाएंटीपें : अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार, सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।
विशेष : आज 'सोमवार' १९ फरवरी २०१८ को 'लोकतंत्र' संवाद मंच ऐसे एक व्यक्तित्व से आपका परिचय करवाने जा रहा है। जो एक साहित्यिक पत्रिका 'साहित्य सुधा' के संपादक व स्वयं भी एक सशक्त लेखक के रूप में कई कीर्तिमान स्थापित कर चुके हैं। वर्तमान में अपनी पत्रिका 'साहित्य सुधा' के माध्यम से नवोदित लेखकों को एक उचित मंच प्रदान करने हेतु प्रतिबद्ध हैं। अतः 'लोकतंत्र' संवाद मंच आप सभी का स्वागत करता है। धन्यवाद "एकलव्य"
बहुत बहुत आभार "लोकतंत्र" संवाद में मेरी रचना "अजनबी" को सम्मिलित करने के लिए ध्रुव सिंह जी.
हटाएंबहुत सुन्दर मीना जी. आपने हम सबकी दुखती रग छेड़ दी. गाँव, कस्बे और छोटे शहरों के लोग ही नहीं, दरो-दीवार भी हमसे बोल लेती हैं और इन महानगरों में तो अपना साया भी अजनबी, अपना पड़ौसी भी अजनबी ! और तो और, हम ख़ुद से भी अजनबी होते जाते हैं.
जवाब देंहटाएंआप जैसे गुणीजन को मेरी रचना पसन्द आई. मेरा लिखना सफल हुआ. बहुत बहुत आभार आपका.
हटाएंआपकी लिखी रचना "मित्र मंडली" में लिंक की गई है https://rakeshkirachanay.blogspot.in/2018/02/57.html पर आप सादर आमंत्रित हैं ....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंमेरी रचना "अजनबी" को "मित्र मंडली" में लिंक करने के लिए अत्यन्त आभार राकेश जी.
हटाएंवाह!! क्या सही लिखा है! उम्दा बयानी!!!
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार विश्व मोहन जी.
हटाएंWah, Such a wonderful line, behad umda, publish your book with
जवाब देंहटाएंOnline Book Publisher India
Thank you for your appreciation. Will think about your suggestion. Thanks again.
हटाएंसत्य को दर्शाती रचना..
जवाब देंहटाएंतहेदिल से शुक्रिया पम्मी जी.
हटाएंवाह ! क्या बात है ! बिलकुल सत्य ! बहुत खूब आदरणीया ।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद राजेश जी.
हटाएंये शहर पत्थर के होते हैं जी न साँस लेते हैं ... संगीत नहि होता बस खट खट होती है मशीन की ... गाँव के सांसें शहर आते आते रुक जाती हैं ... गहरी रचना ...
जवाब देंहटाएंसही कहा आपने....,रहती शहर में ही हूँ लेकिन ना जाने क्यों राजस्थान के उस छोटे से कस्बे को भूल नही पाती जो जन्मस्थली होने के साथ कभी मेरी कर्मस्थली भी था. मेरी रचना पर अपने विचार रखने के लिए तहेदिल से शुक्रिया.
जवाब देंहटाएंबहुत गहराई में जाकर आपने ये प्रश्न रखा है !!
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद संजय जी .
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