(प्रथम भाग)
वो हरे ,नीले कपड़ों के थान खुलवाए अपनी दो अंगुलियों की पोरों के बीच घूंघट थामे पारखी नजरों से कपड़े की किस्म भांप रही थी । बड़ी देर बाद उसने हरे रंग का कपड़ा पसन्द किया अब बारी ओढ़नी की थी , किसी का बांधनी का काम सफाई से नही तो किसी कपड़े में आब नही । कपड़े दिखाने वाला झुंझलाया हुआ था मीन-मेख से , दुकानदार बही-खातो से नजर उठाकर दूसरा माल दिखाने का आदेश दे रहा था ।एक तरफ अपनी बारी की प्रतीक्षा करती मुक्ता और दीया बड़ी देर से सारा क्रिया-कलाप देखती हुई ऊब के मारे बैठी सोच रही थी कि उठ जाए या अपनी बारी की प्रतीक्षा करे , पूरे कस्बे में यही तो एक दुकान है जिस पर वाजिब दामों में सही कपड़ा मिलता है ।
“मुक्ता अपने काका का नाम तो बता।” दुकानदार नाक पर चश्मा ठीक करते हुए उन्हीं की ओर देख रहा था। मुक्ता ने पूरे आत्मविश्वास से जवाब दिया-” बरजा काका”। घूंघट में लिपटी औरत ने झल्लाहट से सिर झटका और दीया को इशारा किया नाम बताने के लिए , हड़बड़ाई दीया ने नाम बोला -”बरजा राम।” नाम सुनते ही दुकानदार के होठो के कोनों पर स्मित सी रेखा उभरी और बोला -”जजमान का नाम आप ही बता दो , लड़कियाँ तो फेल हो गई।” तब तक दीया संभल गई और काकी के गुस्से पर पानी के छींटें डालते हुए भूल सुधारते हुए कहा -”रामकुमार नाम है जी काका का।”
दुकान में बैठी औरत दीया और मुक्ता के घर से कुछ फासले की दूरी पर रहती थी । पूरे कस्बे में उसी के घर से बने मिट्टी के बर्तन जाते थे और पड़ौस में उसका घर उसी के नाम से ही जाना जाता था उस की प्रसिद्धि के आगे काका का नाम गौण ही था। दोनों बहनें दुकान की सीढ़ियों से उतरती हुई खुलकर हँस दी। राह चलते मुक्ता ने पूछा -”दीदी वैसे सभी क्यों उसका ही नाम बुलाते है काका का नाम तो छुपा ही रहता है अपनी घरवाली के नाम के पीछे।” सुमि बता रही थी वो सात साल की ब्याह कर आ गई थी शादी की उम्र तो अट्ठारह वर्ष होती है कम से कम। दीया तो जैसे मुक्ता का इनसाईक्लोपीडिया या गूगल डॉट.कॉम. थी , बटन दबाओ-जानकारी हाजिर। उस वक्त पीछा छुड़ाते हुए दीया ने कहा -”चुपचाप सीधी चल ,बातें करती चलेगी तो कोई टक्कर मारता हुआ निकल जाएगा हो जाएगी यहीं जिज्ञासा पूरी।”
मगर मुक्ता कहाँ पीछा छोड़ने वाली थी , छोटी होने के नाते उसका यह अधिकार था कि वह अपने मन में उठ रहे प्रश्नों के उत्तर अपनी बहन कम सहेली से जाने। यूं भी बाजार वाली घटना घर पर आकर बताई तो घर में हँसी के फव्वारे फूट पड़े थे मुक्ता अपने ऊपर हँसना सहन नही कर पाती थी इसलिए रात में सोने से पहले अपनी आदत के विपरीत गंभीरता से बोली - “अब बताओ ना दीदी ।” दीया ने माँ और परिवार के और सदस्यों से कभी कुछ सुना था वह बालमन के आपसी आकर्षण की कहानी थी।
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(शेष अगले अंक में)
आदरणीय / आदरणीया आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर 'शनिवार' १३ जनवरी २०१८ को लिंक की गई है। आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/
जवाब देंहटाएं"लोकतन्त्र" संवाद मंच पर मेरी कहानी को लिंक कर मान देने के लिए हार्दिक धन्यवाद ध्रुव सिंह जी .
हटाएंउम्दा लेखन यथार्थ चित्रण कर गयी आपकी कहानी मीना जी :)
जवाब देंहटाएंतहेदिल से आभार संजय जी .आपसे अनुरोध है कृपया पूरी कहानी पर अपनी बहुमूल्य राय अवश्य व्यक्त करें .आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी .
हटाएंअच्छी शुरुआत है।
जवाब देंहटाएंहौसला अफजाई के लिए बहुत बहुत धन्यवाद आपका RPSMT 4D .
हटाएंअच्छी शुरुआत है कहानी की रोचक लिखा है ... आगे की कड़ियाँ भी पढता हूँ अभी ....
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार नासवा जी .
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