दुनियादारी का गोरखधन्धा ,
अपने आप में बड़ा अजीब है ।
गाठें पहले भी लगती थी ,
खेल-कूद या चीजों के बंटवारे पर ।।
राग-द्वेष मन के साथ ,
आँखों में उतर आया करता था ।
मगर गिरहें खुलने में ,
वक्त ही कहाँ लगता था ??
खुल ही जाती थीं कभी ,
तारों की छांह तले आंगन में ।
तो कभी उलाहनों के बीच ,
छिपते-छुपाते माँ के आँचल में ।।
मन का मैल एक थाली में खाते हुए ,
कब का धुल जाया करता था ।
बढ़ती उम्र के साथ-साथ ,
सोचों के दायरे सिमटने लगे हैं ।।
एक घर-आंगन वाले संबंध ,
वैचारिक दूरियों से दरकने लगे हैं ।
मन में बंधी गिरहें भी खोलने से ,
अब कहाँ खुलती हैं ?
राग-द्वेष की परतें भी ,
धोने से कहाँ धुलती हैं ??
बड़प्पन की दुनियादारी से ,
बचपन ही अच्छा था ।
उस वक्त जो भी था जैसा भी था ,
सब अपना और सच्चा था ।।
★★★