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शुक्रवार, 29 दिसंबर 2017

"दुनियादारी"

                    दुनियादारी का गोरखधन्धा ,
अपने आप में बड़ा अजीब है ।
गाठें पहले भी लगती थी ,
खेल-कूद या चीजों के बंटवारे पर ।।
राग-द्वेष मन के साथ , 
आँखों में उतर आया करता था ।
मगर गिरहें खुलने में ,
वक्त ही कहाँ लगता था ??
खुल ही जाती थीं कभी ,
तारों की छांह तले आंगन में ।
तो कभी उलाहनों के बीच ,
छिपते-छुपाते माँ के आँचल में ।।
मन का मैल एक थाली में खाते हुए , 
कब का धुल जाया करता था ।
बढ़ती उम्र‎ के साथ-साथ ,
सोचों के दायरे सिमटने लगे हैं ।।
एक घर-आंगन वाले संबंध ,
वैचारिक दूरियों से दरकने लगे हैं ।
मन में बंधी गिरहें  भी खोलने से ,
अब कहाँ खुलती हैं ?‎
राग-द्वेष की परतें भी ,
धोने से कहाँ धुलती हैं ??
बड़प्पन की दुनियादारी से ,
बचपन ही अच्छा था ।
उस वक्त जो भी था जैसा भी था ,
सब अपना और सच्चा था ।।
★★★

गुरुवार, 21 दिसंबर 2017

“शीत ऋतु”

(This image has been taken from google)

गीली सी धूप में
फूलों की पंखुड़ियां
अलसायी सी
आँखें खोलती हैं ।

ओस का मोती भी
गुलाब की देह पर
थरथराता सा
अस्तित्व तलाश‎ता है ।

कोहरे की चादर में
लिपटे घर-द्वार और
पगडंडियां भी सहमी
ठिठुरी सी लगती हैं ।

रक्तिम प्रभा मण्डल  में
मन्थर गति से उदित
मार्तण्ड भी शीत के कोप से
कांपते से दिखते हैं ।

   XXXXX

शनिवार, 9 दिसंबर 2017

"मैं"

                 
है तो छोटा सा
मगर सत्ता‎
असीम और अनन्त ।

समाया है समूचे
संसार में और
गीता के सार में
“अहम् ब्रह्मास्मि”
सब कुछ ईश्वर‎मय
कर्म भी , फल भी ।

बड़ा कालजयी है
द्वापर से त्रेतायुग,
सतयुग से कलयुग
निरन्तर घूमता है
अश्वत्थामा की तरह ।

समझना-पहचानना
जरुरी है ---”मैं” तो
रावण का भी
टिका नही ।

स्वयं में तो बड़ा
सम्पूर्ण  है ‘मैं’
मगर जिस पर
चढ़ जाए
उसे करता है
अपूर्ण  ‘मैं ‘ ।

XXXXX

मंगलवार, 5 दिसंबर 2017

"त्रिवेणी"

                   (1)

कुदरत की आँखें‎ नम और मनस्थिति कुछ गमगीन है
एक और  दिवस बीता एक और युग अवसान हुआ ।

नश्वरता की प्रकृति  प्रकृति‎ को भी कहाँ भाती है ।।                     
                  (2) 

व्यक्तित्व का अंश बन जाती हैं कुछ‎ स्मृतियाँ
अहसासों को महसूसने में भी टीस ही देती हैं ।

बातों के जख्म आसानी से कहाँ भरा करते हैं ।।

                               XXXXX

बुधवार, 29 नवंबर 2017

"आदत"

उम्र‎ का आवरण
मंजिल का फासला
तय करते  करते‎
थक सा गया है
कदमों की लय भी
विराम चाहती हैं
आदत है कि…..,
आज भी चाँद के
साथ साथ चलती हैं
पानी से भरी बाल्टी में
बादलों की भागती परतें
आज भी वैसे ही
उतरती हैं और
अनन्त आसमान की
ऊँचाईयाँ मेरी आँखों‎
के साथ  साथ‎
छोटे से बर्तन की
सतह में भरती है .

XXXXX

शुक्रवार, 24 नवंबर 2017

“सांझ-सवेरे”

सांझ-सवेरे आजकल मन , पुरानी यादों में डूबता है ।
क्षितिज पर बिखरी लाली में , उगते सूरज को ढूंढता है ।

खाली कोना छत का और घण्टाघर की घड़ी के तीर।
बेख्याली में उलझा मन , खोये बचपन को ढूंढता है

नीड़ों में लौटते परिन्दे वो आसमान में  छिटपुट तारे ।
ढलती सांझ के साये में , सांझ के तारे को ढूंढता है ।

एकाकी सा खड़ा घर ये बैया कॉलोनी सी कतारें ।
बेगानों से भरी भीड़ में , बस अपनोंं को ढूंढता है ।

बाँध रखी है दीवाने ने साँसों संग उम्मीदों की डोर ।
आयेंगे हालात काबू में , वह दिन औ वह रात ढूंढता है ।



             XXXXX

शुक्रवार, 17 नवंबर 2017

"वो दिन"

                     
जाड़ों  की ठिठुरन और
तुम्हारे हाथों बने पंराठे
जायका आज भी
वैसा‎ ही मुँह में घुला है ।

बर्फ से ठण्डे हाथ और
सुन्न पड़ती अंगुलियाँ
जोर से रगड़ कर
गर्म‎ करने का हुनर
तुम्हें देख कर
तुम ही से सीखा है ।

गणतन्त्र दिवस की तैयारियाँ और
शीत लहर‎ में कांपते हम
तुम्हारी जेब से निकली
मूंगफली और रेवड़ियों का स्वाद
तुम्हारे साथ ऐसी ही
ठण्ड में बैठ‎ कर चखा है ।

वो दिन थे बेफिक्री के और
बेलगाम सी थी तमन्नाएं
पीछे झांक कर देखूं तो लगता है ….,
“वो दिन” भी क्या दिन थे।

        XXXXX

गुरुवार, 9 नवंबर 2017

“त्रिवेणी"

(This image has been taken from google)

  ( 1 )

उगते सूरज से मांगा है उन्नति और विकास
चाँद से स्निग्धता और उज्जवलता ।
 
क्या बताऊँ तुम्हें…..,कि तुमसे कितना प्यार है ।।


  ( 2 )

लम्बी  डगर और उसके दो छोर
बिना मिले अनवरत साथ  साथ‎ चलते हैं‎ ।

जीने का हुनर पगडंडियाँ भी जानती हैं ।।


XXXXX

रविवार, 5 नवंबर 2017

“गज़ल” ( 2 )

गज़ल सुनने‎ मे पढ़ने में बड़ी भली लगती हैं वे चाहे दर्द बयां करें या जिन्दगी  का  फलसफ़ा …, बात कहने का हुनर बड़ा मखमली होता है। गज़ल लिखने का हुनर तो नही है मेरे पास सोचा  क्यों ना एक नज़्म लिखूं जिसमें गज़ल की खूबियों का जिक्र हो . --------------

रूमानी मखमली अल्फाज़ो में लिपटी
रंज और गम की कतरनों में सिमटी
रीतिकाल की  चपल सी  नायिका
राग और सोज के रंग में ढली है गज़ल ।।

मधुशाला में कयामत करती
भावनाओं  के दरिया सी बहती
बेला की कलियों सी महकी
काव्य की अनुपम  कारीगरी है गज़ल ।।

महफिलों  में रौनक करती
दिलों में सुकून भरती
इन्द्र‎धनुष के रंगों सी सतरंगी
हर दिल  को बड़ी‎ भाती है  गज़ल ।।

           XXXXX

बुधवार, 1 नवंबर 2017

"त्रिवेणी"


                        
(This image has been taken from google)


(1)

सरहदें तो अपने वतन की  ही है मगर ना जाने क्यों
उत्तर से दक्कन  आने वाली बयार  भली सी लगती है ।

बात कुछ भी नही बस तुम्हारी याद आ जाया करती है।।

 ( 2 )

सर्द हवाओं के  झुण्ड कुछ ढूंढ रहे हैं
गाँव की गलियों और पनघट के छोर पर ।

सरहद से किसी फौजी का पैगाम आया लगता है ।।  

  xxxxx

सोमवार, 23 अक्टूबर 2017

“महक”

जब सूरज की तपिश तेज होती है और सूखी धरती पर 
बारिश की पहली बार बूँदें  टकराती है तो मिट्टी‎ के वजूद
से उठती गंध मुझे बड़ी भली लगती है। आजकल जमाना
 फ्रिज में रखी वाटर बॉटल्स वाला है मगर मेरे बचपन में 
मिट्टी‎ की सुराहियों और मटकों वाला था। मुझे याद है मैं 
सदा नया मटका धोने की जिद्द करती और इसी बहाने 
उस भीनी महक को महसूस करती रहती । माँ की
 आवाज से ही मेरी तन्द्रा टूटती । बारिश शुरु होते ही 
उस खुश्बू का आकर्षण‎ स्कूल के कड़े अनुशासन में 
मुझे नटखट बना देता और अध्यापिका की 
अनुपस्थिति में खिड़की‎ या 
कक्षा‎ कक्ष‎ के दरवाजे‎ तक आने को मजबूर कर
 देता।  एक दिन यूं ही कुछ‎ पढ़ते‎ पढ़ते पंजाब‎ की प्रसिद्ध‎ 
लोक कथा‎ ‘सोनी-महिवाल’ का प्रसंग पढ़ने को
 मिल गया ,कहानी से अनजान तो नही थी मगर
 उत्सुकतावश पढ़ने बैठ गई । 
कहानी का सार कुछ इस तरह था -------
                          “18 वीं शताब्दी‎ में चिनाब नदी के 
किनारे एक कुम्भकार के घर सुन्दर‎ सी लड़की का 
जन्म हुआ जिसका नाम “सोहनी” था । 
पिता के बनाए‎ मिट्टी‎ के बर्तनों
पर वह सुन्दर‎  सुन्दर‎ आकृतियाँ उकेरती । 
पिता-पुत्री के बनाए‎ मिट्टी‎ की बर्तन दूर  दूर‎ तक 
लोकप्रिय‎ थे । उस समय चिनाब नदी से अरब देशों‎ 
 और उत्तर भारत के मध्य व्यापार
 हुआ‎ करता था। बुखारा (उजबेकिस्तान) के अमीर 
व्यापारी का बेटा  व्यापार के सिलसिले में चिनाब 
के रास्ते‎ उस गाँव से होकर आया और सोहनी को देख 
मन्त्रमुग्ध हो उसी गाँव में टिक गया । आजीविका 
यापन के लिए उसी गाँव‎ की भैंसों को चराने का काम
 करने से वह महिवाल के नाम से जाना जाने लगा । 
सामाजिक‎ वर्जनाओं के चलते सोहनी मिट्टी‎ के घड़े 
की सहायता से चिनाब पार कर महिवाल से छिप
 कर मिलने जाती । राज उजागर होने पर उसी की
 रिश्तेदार ने मिट्टी‎ के पक्के घड़े को कच्चे घड़े मे
 बदल दिया । चिनाब की धारा के आगे कच्ची मिट्टी‎ 
के घड़े की क्या बिसात ?  घड़ा गल
 गया और  पानी में डूबती सोहनी को बचाते हुए‎ 
महिवाल भी जलमग्न हो गया ।"

*****
      
 कभी  कभी‎ लगता है माटी की देह में  कहीं सोहनी 
 तो कहीं  किसी और अनजान तरुणी का प्यार‎ बसा है  ।
 ना जाने कितनी ही अनदेखी और अनजान कहानियों‎
 को अपने आप में समेटे है यह।  तभी‎ तो मिट्टी‎ पानी
 की पहली बूँद के सम्पर्क‎ में आते ही सौंधी सी गमक
 से महका देती है सारे संसार‎ को ।

                xxxxx 

सोमवार, 16 अक्टूबर 2017

“एक ख़त”

This image has been taken from google


एक दिन पुरानी‎ फाइलों में
कुछ ढूंढते ढूंढते
अंगुलि‎यों से तुम्हारा‎
ख़त  टकरा गया
कोरे  पन्ने पर बिखरे
चन्द  अल्फाज़…, जिनमें
अपने अपनेपन की यादें
पूरी शिद्दत के साथ मौजूद थी
मौजूद तो गुलाब की  
कुछ पंखुड़ियां भी थी
जो तुमने मेरे जन्मदिन पर
बड़े जतन  से
खत के साथ भेजी थी .,
उनका सुर्ख रंग
कुछ‎  खो सा गया है
हमारे रिश्ते का रंग भी अब
उन पंखुड़ियों की तरह
पहले कुछ और था लेकिन 
अब कुछ और हो गया है

xxxxx

मंगलवार, 10 अक्टूबर 2017

“विभावरी” (हाइकु)

जिद्दी है मन
करता मनमानी
कैसी नादानी

स्वप्निल आँखें‎
ये जागे जग सोये
मौन यामिनी

राह निहारे
ओ भटकी निन्दिया
थके से नैना

सोया वो चन्दा
गुप चुप से तारे
सोती रजनी

भोर का तारा
दूर क्षितिज पर
ऊषा की लाली

निशा विहान
सैकत तट पर
जागा जीवन

xxxxx

बुधवार, 4 अक्टूबर 2017

आँसू

आँसू प्यार और दर्द के‎
अहसास की पहचान‎ होते हैं
दिल के दर्द को बयान करते हैं
ठेस लगे तो उमड़ पड़ते हैं तो कभी‎
अपनों की जुदाई में भी छलक जाते हैं
वक्त बदला और दुनिया बदली
अहसासों की परिभाषा बदली
अब वक्त कहता है ….,
अपनी बात मनवाने को
खुद का सिक्का जमाने को
जब जी चाहे ….,
आँखों में आ जाते हैं और
पलकों की चिलमन छोड़
गालों पर फिसल जाते हैं।

xxxxx 

रविवार, 1 अक्टूबर 2017

“ हम्पी के पुरातात्विक अवशेष”

“आगे चले बहुरि रघुराया ।
ऋष्यमूक पर्वत‎ नियराया।।

श्री राम की सुग्रीव मैत्री का साक्षी -  ऋष्यमूक पर्वत‎, हनुमान जी जन्मस्थली- आंजनेय पर्वत‎ और बाली पर्वत‎ से घिरा मनोरम स्थल जिसे रामायण काल मे किष्किन्धापुरी के नाम से जानते हैं  , तुंगभद्रा नदी के किनारे  फैला है।  इसी भू भाग में 1350 ई. से 1556 ई.तक संगमवंश का शासन रहा। हरिहर राय और बुक्का राय नामक दो भाईयों ने विजय नगर राज्य की स्थापना कर हम्पी को अपने  राज्य की राजधानी बनाया । यूनेस्को द्वारा‎ संरक्षित इन प्राचीन अवशेषों की स्थापत्य कला देखते ही बनती है ।  कहीं पर आध्यात्म मन को  शान्ति‎ देता है तो कहीं पुरातात्विक निर्माण रोमांचित करता है। मैं ना कोई इतिहासविद हूँ और ना ही कुशल फोटोग्राफर ,बस जो मन को जँचा कैमरे में कैद कर लिया।
मुझे सदा‎ यही लगा कि प्रकृतिदत्त निर्माण हो या मानवकृत, खामोशी में हर एक की अभिव्यक्ति‎ है, ये भी गीत हैं, विचार हैं, मौन में मुखर होने की कला में निपुण हैं। इस  पोस्ट में यही‎ अभिव्यक्ति‎ कुछ तस्वीरों के माध्यम‎ से आप से साझा करने का प्रयास किया है ।