है तो छोटा सा
मगर सत्ता
असीम और अनन्त ।
समाया है समूचे
संसार में और
गीता के सार में
“अहम् ब्रह्मास्मि”
सब कुछ ईश्वरमय
कर्म भी , फल भी ।
बड़ा कालजयी है
द्वापर से त्रेतायुग,
सतयुग से कलयुग
निरन्तर घूमता है
अश्वत्थामा की तरह ।
समझना-पहचानना
जरुरी है ---”मैं” तो
रावण का भी
टिका नही ।
स्वयं में तो बड़ा
सम्पूर्ण है ‘मैं’
मगर जिस पर
चढ़ जाए
उसे करता है
अपूर्ण ‘मैं ‘ ।
XXXXX
वाह्ह्ह....क्या खूब अभिव्यक्ति है,कितना सही लिखा आपने मीना जी मैं यानि अहम् कहाँ कभी किसी का टिक पाया है....मैं सर्वनाश का पूर्व चरम पर होता है।
जवाब देंहटाएंआपकी इस रचना में छुपे गूढ़ अर्थों ने मन झकझोर दिया।
सुन्दर सी ऊर्जावान प्रतिक्रिया के लिए बहुत बहुत धन्यवाद श्वेता जी .
जवाब देंहटाएंअहम की ओढ़ कर चादर
जवाब देंहटाएंफिरा करते हैं हम अक्सर
...जब कभी अहम पर नियति चोट देती है ...सर्वनाश
सुन्दर सराहनीय प्रतिक्रिया हेतु आभार संजय जी .
हटाएंआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" रविवार 10 दिसम्बर 2017 को साझा की गई है.................. http://halchalwith5links.blogspot.com पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंरचना को "पाँच लिंको का आनन्द" में सम्मिलित कर मान देने के लिए हृदयतल से आभार दिग्विजय अग्रवाल जी .
हटाएंबहुत खूब
जवाब देंहटाएंब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत एवं आभार .
हटाएंअहम् ब्रह्मास्मि”सब कुछ ईश्वरमय
जवाब देंहटाएंकर्म भी , फल भी ।
सुंदर रचना। "मैं"अर्थात "अहम" को आईना दिखाती इस रचनारहेतु बधाई व सुप्रभात।
स्वागत एवं सराहनीय प्रतिक्रिया के लिए बहुत बहुत धन्यवाद .
जवाब देंहटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंआभार जोशी जी .
हटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंआभार नीतू जी .
हटाएंबहुत ही सारगर्भित रचना,मैं तो रावण का भी नहीं टिका , बहुत प्रभावी पंक्ति ...!!मैं कहने वाला अक्सर अकेला होता है जो खुद के अहम के साथ जीवन जीता है.. परंतु हम की परिभाषा को मानने वाला हम कभी अकेला नहीं होता ... बधाई हो इतनी अच्छी विषय पर आपने रचना लिखी..!!
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद अनीता जी इतनी सुन्दर व्याख्यात्मक एवं प्रोत्साहन वृद्धि करती प्रतिक्रिया के लिए.
हटाएंवाह ! मीना जी ख़ूबसूरत दार्शनिक अंदाज़ की अभिव्यक्ति। आत्मश्लाघा ,अहंकार और मैं व्यक्ति को नीचे गिराते हैं ,मिटाते हैं। प्रासंगिक संदर्भों का सटीक प्रयोग। बधाई एवं शुभकामनाऐं।
जवाब देंहटाएंआपकी प्रतिक्रिया सदैव उत्साहवर्धक एवं प्रेरक होती हैं मेरे लिए . बहुत बहुत धन्यवाद रविन्द्र सिंह जी .
हटाएंवाह ! मीना जी ख़ूबसूरत दार्शनिक अंदाज़ की अभिव्यक्ति। आत्मश्लाघा ,अहंकार और मैं व्यक्ति को नीचे गिराते हैं ,मिटाते हैं। प्रासंगिक संदर्भों का सटीक प्रयोग। बधाई एवं शुभकामनाऐं।
जवाब देंहटाएंमैं पर कबीर जी ने कहा --
जवाब देंहटाएंजब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहिं।
प्रेम गली अति सॉंकरी, तामें दो न समाहिं।।-
सो मैं के साथ इन्सान अधूरा रहता है तो जब किसी का मैं मिटता है तभी उसका विस्तार होता है | सादर --
बहुत सुन्दर प्रतिक्रिया है आपकी . हार्दिक धन्यवाद .ब्लॉग पर आपका स्वागत है रेणु ची .
हटाएंबेहद सारगर्भित रचना. मैं कभी किसी का न हुआ. जिसका हुआ उसका नामोनिशान मिटा गया. सुंदर रचना हेतु बधाई मीना जी
जवाब देंहटाएंआपकी सुन्दर व्याख्यात्मक प्रतिक्रिया के लिए हृदयतल से आभार एवं ब्लॉग पर आपका स्वागत सुधा जी .
हटाएंसटीक और सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद ओंकार जी .
हटाएंआपकी लिखी रचना "मित्र मंडली" में लिंक की गई है https://rakeshkirachanay.blogspot.in/2017/12/47.html पर आप सादर आमंत्रित हैं ....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएं"मित्र मंडली" में सम्मिलित कर रचना को सम्मान देने के लिए हार्दिक धन्यवाद राकेश कुमार जी .
हटाएंसही लिखा है ... में का अंत इतनी आसान से नहीं होता ... सतत प्रयास से ही मुक्ति मिलती है ... आध्यात्म लिखा है जीवन का ..
जवाब देंहटाएंरचना सराहना के लिए तहेदिल से आभार नासवा जी .
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