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शुक्रवार, 29 दिसंबर 2017

"दुनियादारी"

                    दुनियादारी का गोरखधन्धा ,
अपने आप में बड़ा अजीब है ।
गाठें पहले भी लगती थी ,
खेल-कूद या चीजों के बंटवारे पर ।।
राग-द्वेष मन के साथ , 
आँखों में उतर आया करता था ।
मगर गिरहें खुलने में ,
वक्त ही कहाँ लगता था ??
खुल ही जाती थीं कभी ,
तारों की छांह तले आंगन में ।
तो कभी उलाहनों के बीच ,
छिपते-छुपाते माँ के आँचल में ।।
मन का मैल एक थाली में खाते हुए , 
कब का धुल जाया करता था ।
बढ़ती उम्र‎ के साथ-साथ ,
सोचों के दायरे सिमटने लगे हैं ।।
एक घर-आंगन वाले संबंध ,
वैचारिक दूरियों से दरकने लगे हैं ।
मन में बंधी गिरहें  भी खोलने से ,
अब कहाँ खुलती हैं ?‎
राग-द्वेष की परतें भी ,
धोने से कहाँ धुलती हैं ??
बड़प्पन की दुनियादारी से ,
बचपन ही अच्छा था ।
उस वक्त जो भी था जैसा भी था ,
सब अपना और सच्चा था ।।
★★★

10 टिप्‍पणियां:

  1. भावों का गंभीर सफ़र। मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति हमें आगे और पीछे को लेकर सोचने के लिए भाव-भूमि तैयार करती है।
    बधाई एवं शुभकामनाएं आदरणीया मीना जी।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. बहुत‎ बहुत‎ धन्यवाद रविन्द्र सिंह‎ जी .

      हटाएं
  2. आपकी लिखी रचना "मित्र मंडली" में लिंक की गई है http://rakeshkirachanay.blogspot.in/2018/01/50.html पर आप सादर आमंत्रित हैं ....धन्यवाद!

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. "मित्र मंडली" में सम्मिलित करने के लिए‎ बहुत बहुत‎ धन्यवाद राकेश कुमार‎ जी .

      हटाएं
  3. खूबसूरत प्रस्तुति नव वर्ष की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ मीना जी:(

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  4. बहुत‎ बहुत‎ धन्यवाद संजय जी .आपको भी परिवार सहित नववर्ष की हार्दिक शुभ‎कामनाएँ एवं बधाई :)-

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  5. सच दर्द। अयन किया है शब्दों से ...
    अब सब बातें सिल में रख लेते हैं ... गाँठें खुलती नहीं ....

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मेरी लेखन यात्रा में सहयात्री होने के लिए आपका हार्दिक आभार 🙏

- "मीना भारद्वाज"