दुनियादारी का गोरखधन्धा ,
अपने आप में बड़ा अजीब है ।
गाठें पहले भी लगती थी ,
खेल-कूद या चीजों के बंटवारे पर ।।
राग-द्वेष मन के साथ ,
आँखों में उतर आया करता था ।
मगर गिरहें खुलने में ,
वक्त ही कहाँ लगता था ??
खुल ही जाती थीं कभी ,
तारों की छांह तले आंगन में ।
तो कभी उलाहनों के बीच ,
छिपते-छुपाते माँ के आँचल में ।।
मन का मैल एक थाली में खाते हुए ,
कब का धुल जाया करता था ।
बढ़ती उम्र के साथ-साथ ,
सोचों के दायरे सिमटने लगे हैं ।।
एक घर-आंगन वाले संबंध ,
वैचारिक दूरियों से दरकने लगे हैं ।
मन में बंधी गिरहें भी खोलने से ,
अब कहाँ खुलती हैं ?
राग-द्वेष की परतें भी ,
धोने से कहाँ धुलती हैं ??
बड़प्पन की दुनियादारी से ,
बचपन ही अच्छा था ।
उस वक्त जो भी था जैसा भी था ,
सब अपना और सच्चा था ।।
★★★
भावों का गंभीर सफ़र। मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति हमें आगे और पीछे को लेकर सोचने के लिए भाव-भूमि तैयार करती है।
जवाब देंहटाएंबधाई एवं शुभकामनाएं आदरणीया मीना जी।
बहुत बहुत धन्यवाद रविन्द्र सिंह जी .
हटाएंबहुत सुंदर रचना मीना जी👌
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद श्वेता जी .
हटाएंआपकी लिखी रचना "मित्र मंडली" में लिंक की गई है http://rakeshkirachanay.blogspot.in/2018/01/50.html पर आप सादर आमंत्रित हैं ....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएं"मित्र मंडली" में सम्मिलित करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद राकेश कुमार जी .
हटाएंखूबसूरत प्रस्तुति नव वर्ष की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ मीना जी:(
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद संजय जी .आपको भी परिवार सहित नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ एवं बधाई :)-
जवाब देंहटाएंसच दर्द। अयन किया है शब्दों से ...
जवाब देंहटाएंअब सब बातें सिल में रख लेते हैं ... गाँठें खुलती नहीं ....
बहुत बहुत आभार नासवा जी .
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