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शुक्रवार, 17 नवंबर 2017

"वो दिन"

                     
जाड़ों  की ठिठुरन और
तुम्हारे हाथों बने पंराठे
जायका आज भी
वैसा‎ ही मुँह में घुला है ।

बर्फ से ठण्डे हाथ और
सुन्न पड़ती अंगुलियाँ
जोर से रगड़ कर
गर्म‎ करने का हुनर
तुम्हें देख कर
तुम ही से सीखा है ।

गणतन्त्र दिवस की तैयारियाँ और
शीत लहर‎ में कांपते हम
तुम्हारी जेब से निकली
मूंगफली और रेवड़ियों का स्वाद
तुम्हारे साथ ऐसी ही
ठण्ड में बैठ‎ कर चखा है ।

वो दिन थे बेफिक्री के और
बेलगाम सी थी तमन्नाएं
पीछे झांक कर देखूं तो लगता है ….,
“वो दिन” भी क्या दिन थे।

        XXXXX

20 टिप्‍पणियां:

  1. उत्तर
    1. अक्सर‎ इन्सान का मन इन्हीं गलियारों में डूबा रहता है .आभार रचना‎ का अवलोकन करने और प्रतिक्रिया‎ के लिए‎ विश्व मोहन जी.

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  2. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" रविवार 19 नवम्बर 2017 को साझा की गई है.................. http://halchalwith5links.blogspot.com पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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    उत्तर
    1. यशोदा जी रचना‎ को "पांच लिंकों का आनन्द‎ में" साझा कर मान देने के लिए‎ हृदयतल से सादर आभार .

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  3. वाह्ह्ह...सोंधी सी महक घुल गयी जेहन में...
    बहुत खूबसूरत रचना मीना जी।

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    उत्तर
    1. आपकी स्नेहिल प्रतिक्रिया‎ के लिए‎ हृदय से आभार श्वेता जी .

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  4. बहुत खूबसूरत रचना
    यादों के झरोखे से..

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    उत्तर
    1. "मंथन" पर आपका स्वागत है रचना‎ सराहना हेतु हार्दिक धन्यवाद .

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  5. वो दिन भी क्‍या दिन थे...सच्ची

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    उत्तर
    1. स्वागत आपका "मंथन" पर . रचना सराहना के लिए‎ बहुत बहुत‎ आभार अलकनन्दा जी .

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  6. वो दिन भी क्या दिन थे.....
    बहुत ही लाजवाब....
    वाह!!!

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  7. बीते हुए तो हर दिन ही अच्छे लगते हैं ... उनमें अपनापन जो जुड़ा होता है ... फिर यादगार दिनों की तो बात ही कुछ और होती है ... बहुत ही अच्छी ररचना ...

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    उत्तर
    1. तहेदिल से शुक्रिया नासवा जी!आपकी प्रतिक्रिया‎ सदैव उत्साह‎वर्धन करती है .

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  8. तुम्हारी जेब से निकली
    मूंगफली और रेवड़ियों का स्वाद
    मीना जी...वाह...बेहतरीन पंक्तियाँ....यादों के गलियारे से !

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  9. यादों की धरोहर सचमुच‎ बड़ी अमूल्य होती हैं आपकी ऊर्जा‎वान प्रतिक्रिया‎ के लिए अत्यन्त‎ आभार .

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मेरी लेखन यात्रा में सहयात्री होने के लिए आपका हार्दिक आभार 🙏

- "मीना भारद्वाज"