मन की पीड़ा
बह जाने दो ।
बहते दरिया में वो
हल्की हो जाएगी ।
गीली लकड़ी समान
होती है मन की पीड़ा ।
जब उठती है तो
सुलगती सी लगती है ।
और आँखों में धुएँ के साथ
सांसों में जलन सी भरती है ।
पता है ……. ?
ठहरे पानी पर
काई ही जमती है ।
थमने से वजूद
खो सा जाता है ।
चलते रहो …..,
यही जिन्दगी है ।
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वाह्ह्ह....मीना जी लाज़वाब रचना,सुंदर संदेश भरी पंक्तियाँ।बहुत अच्छी👌
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद श्वेता जी .
हटाएंबहुत उन्दा पंकितीय है
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद रिंकी जी .
हटाएंसही कहा चलते रहो यही जिन्दगी है....
जवाब देंहटाएंलाजवाब रचना....
बहुत बहुत आभार सुधा जी .
हटाएंठहरे पानी पर
जवाब देंहटाएंकाई ही जमती है ।
थमने से वजूद
खो सा जाता है ।
चलते रहो …..,
यही जिन्दगी है ।
बहुत सुंदर...
ज्योति जी बहुत बहुत आभार .
हटाएंसच कहा अहि ... मन की पीड़ा बह जाये तो अच्छा ... मन हल्का हो जाता है ... जीवन आसान हो जाता है ...
जवाब देंहटाएंरचना का मर्म समझने के लिए शुक्रिया दिगम्बर जी .
हटाएंबढ़िया!!!
जवाब देंहटाएंआभार विश्व मोहन जी .
हटाएंमन की पीड़ा
जवाब देंहटाएंबह जाने दो ।
बहते दरिया में वो
हल्की हो जाएगी ।
मन की पीड़ा का बह जाना बहुत जरूरी है मन की घुटन को बहुत शान्ति मिलती है ....और जीवन फिर अपनी रफ़्तार से चलने लगता है !
बहुत बहुत धन्यवाद संजय जी .
जवाब देंहटाएंनमस्ते.....
जवाब देंहटाएंआप को बताते हुए हर्ष हो रहा है......
आप की ये रचना लिंक की गयी है......
दिनांक 10/04/2022 को.......
पांच लिंकों का आनंद पर....
आप भी अवश्य पधारें....