मन की पीड़ा
बह जाने दो ।
बहते दरिया में वो
हल्की हो जाएगी ।
गीली लकड़ी समान
होती है मन की पीड़ा ।
जब उठती है तो
सुलगती सी लगती है ।
और आँखों में धुएँ के साथ
सांसों में जलन सी भरती है ।
पता है ……. ?
ठहरे पानी पर
काई ही जमती है ।
थमने से वजूद
खो सा जाता है ।
चलते रहो …..,
यही जिन्दगी है ।
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