सुबह की भागम-भाग के बाद
उसका पूरा दिन अकेले घर में
कभी इधर तो कभी उधर
बेमतलब की उठा-पटक में कटता है ।
ईंट-पत्थरों की ऊँची सी शाख पे
अटका उसका घर देखने में
बैंया का घोंसला सा लगता है
उसकी ताका-झाकी देख लगता है
उसका भी भीड़ में आने को जी करता है ।
जमीन पर रखना चाहता है कदम
मगर ना जाने क्यों झिझकता है
हो गया है अकेलेपन का आदी
अब बस्तियों से डरता है ।
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ऐसा कमाल का लिखा है आपने कि पढ़ते समय एक बार भी ले बाधित नहीं हुआ और भाव तो सीधे मन तक पहुंचे !!
जवाब देंहटाएंसंजय जी उत्साहवर्धन करती आपकी प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार .
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