बाँटना तो बहुत कुछ था
तुमसे...
एक अँजुरी खुशियाँ
और...
जिन्दगी भर का नमक ।
बाँटना तो बचपन भी था
जो भागते-दौड़ते
ना जाने कब का
पीछे रह गया ।
मन की चरखी पर
मोह के धागों के बीच
ना जाने तुमने
कितनी गिरहें बुन ली ।
जब भी खोलना चाहूँ
ये उलझी सी लगती हैं
खोलने को पकड़ूंं एक
तो दूसरी जकड़ी सी लगती है ।
उलझनों का ढेर है जीवन
फंदों सा कसता रहता है ।
मन करे जतन कितना
बेमतलब जकड़ा फिरता है ।
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कविता बहुत अच्छी लगी.... मैं बाहर था ना ...इसलिए आपकी पिछली पोस्टों पर नहीं आ पाया....
जवाब देंहटाएंआपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया मेरे लिए अनमोल है संजय जी .मेेरे ब्लॉग को समय देने के लिए आपका हार्दिक आभार.
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