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मंगलवार, 18 अप्रैल 2017

"तुम"

ऐसा नही कि कभी तुम्हारी याद‎ आई  ही नही , आई ना.., जब कभी किसी कशमकश में उलझी , कभी खुद के वजूद की तलाश हुई । सदा तुम्ही तो जादू की झप्पी बनी , कभी फोन पर , तो कभी प्रत्यक्ष‎ रूप‎ में । तुम , तुम हो इसका अहसास सदा तुम्हारी अनुपस्थिति में‎ हुआ जटिल परिस्थितियों‎ में‎ घिरी होने के बाद भी तुम्हारी सधी चाल और चेहरे को देखकर  यही लगा कि तुम्हें यकीन है कि कैसे पार पाना है विषम और कठिन परिस्थितियों‎ से ।

                                     मैं जब भी परेशान हुई सदा तुमने‎ हौंसला दिया मुझे सदा यही  लगा कि हर समस्या का हल है तुम्हारे पास । मैं तुम‎ से कुछ कहूँगी अगले ही पल तुम जैसे कोई जादुई छड़ी घुमाओगी और परेशानी फुर्र से उड़ जाएगी पक्षी‎ की तरह । बचपन से बड़पन तक सदा अलाहद्दीन का चिराग समझा तुम्हे , कल पहली बार कहा तुम‎ से --- ‘अगले जन्म में …., यदि होता है तो मैं‎ तुम्हारा‎ ही कोई भाई- बहन‎ बन कर तुम जैसा बन कर जीना चाहूँगी ।’

                                  हँसते हुए मानो यह भी तुम्हें पता हो तुमने कहा था ---- ‘ देखो ऊपर वाले ने जो करना है वो उसे ही करने दो वो उसी काम है हम सीमाओं में बँधे प्राणी हैं‎ । और हाँ तुम कहाँ आज भावनाओं में बह रही हो तुम्हारी अपनी सीमाएँ और बंधन हैं  याद है ना देशों की अपनी अपनी सीमाएँ होती हैं सभी अपनी सीमाओं में रहे तो अच्छा है ।’

                        मेरे मोह को सीमाओं में बाँध कर कितनी सहजता और निर्लिप्तता के साथ सब कुछ दरकिनार कर एक सन्यासी की तरह आगे बढ़‎ गई तुम ।

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- "मीना भारद्वाज"