बहुत दिन बीते मेरा घर ,
मेरे लिए परदेसी सा हो गया है ।
मेरी ही तरह अपने ही शहर में ,
अजनबी सा हो गया है ।
खाली छत पे झुका बूढ़ा सा पेड़,
टूट गया या पता नही, हरा खड़ा होगा ।
कच्चा आंगन था मिट्टी वाला ,
शायद अब कंकरीट पड़ा होगा ।
राबता है उसके संग ऐसा,
सांसों की डोर सा बंधा रहता है ।
मैं जाऊँ चाहे कहीं भी यादों में ,
साये सा साथ रहता है ।
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- "मीना भारद्वाज"