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सोमवार, 30 जनवरी 2017

"ग़ज़ल"

 कुहरे में डूबी पगडंडी ,
सूखे पत्तों पर चलने से चरमराहट ।

अलसाए से कदमों से चहलकदमी ,
जगजीत सिंह की ग़ज़लों की गुनगुनाहट ।

आपा-धापी की दुनिया से बाहर निकल ,
फुर्सत के लम्हें फिर से जीए जाएँ ।

लम्बी खामोशी के बाद मन की कुछ ,
कहने सुनने को हम भी कुछ गुनगुनाए ।
तभी अन्तर्मन के कोने से कानों में ,
मिठास घोलती एक आवाज आई ।

क्षितिज छोर की लालिमा दूर कहीं वादी में ,
किसी ने गालिब की भीगी सी गज़ल गाई ।


                    ×××××

5 टिप्‍पणियां:

  1. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार(०२-१०-२०२१) को
    'रेत के रिश्ते' (चर्चा अंक-४२०५)
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत ही सुंदर और प्यारी रचना!

    जवाब देंहटाएं
  3. वाह बहुत सुंदर!सरस मनोभावों को उभारती रचना।

    जवाब देंहटाएं

मेरी लेखन यात्रा में सहयात्री होने के लिए आपका हार्दिक आभार 🙏

- "मीना भारद्वाज"