कुहरे में डूबी पगडंडी ,
सूखे पत्तों पर चलने से चरमराहट ।
अलसाए से कदमों से चहलकदमी ,
जगजीत सिंह की ग़ज़लों की गुनगुनाहट ।
आपा-धापी की दुनिया से बाहर निकल ,
फुर्सत के लम्हें फिर से जीए जाएँ ।
लम्बी खामोशी के बाद मन की कुछ ,
कहने सुनने को हम भी कुछ गुनगुनाए ।
तभी अन्तर्मन के कोने से कानों में ,
मिठास घोलती एक आवाज आई ।
क्षितिज छोर की लालिमा दूर कहीं वादी में ,
किसी ने गालिब की भीगी सी गज़ल गाई ।
×××××
https://mainmusafir1.blogspot.in/
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार(०२-१०-२०२१) को
'रेत के रिश्ते' (चर्चा अंक-४२०५) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
बहुत सुंदर पंक्तियाँ आदरणीय ।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर और प्यारी रचना!
जवाब देंहटाएंवाह बहुत सुंदर!सरस मनोभावों को उभारती रचना।
जवाब देंहटाएं