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मंगलवार, 24 जनवरी 2017

"परछाईं"

क्या तुम्हे पता है?
मै आज भी वैसी ही हूँ?
तुम्हे याद है?
मेरा होना ही तुम्हारे मन मे 
पुलकन सी,
भर जाया करता था।
मेरे ना होने पर,
तुम कितने बेकल हो जाया करते थे।
अकेलेपन का तंज,
तुम्हारी आवाज में छलका करता था।
आओ ! हाथ बढ़ा कर छू लो मुझे,
मैं आज भी वैसे ही लगती हूँ।
कभी-कभी लगता है,
मैं तुम्हारे लिये ...
कोहरे की चादर सा,
एक अहसास हूँ
आशीषों की बौछार सी
कछुए के कवच सी,
रोशनी की चमक सी
धरा की धनक सी
तुम्हारे दुख मे, तुम्हारे सुख में,
तुम्हारे साथ जीती-जागती
तुम्हारी ही परछाईं हूँ।


XXXXX

4 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर प्रस्तुति !
    आज फिर से कई दिनों बाद आपकी कुछ पुरानी रचनाये पढ़ी काफी अच्छा लगा आपकी रचनाओ को पढ़कर ,......आभार रचनाये पढ़वाने के लिए

    जवाब देंहटाएं
  2. तहेदिल से शुक्रिया संजय जी आपकी हौंसला अफजाई का .

    जवाब देंहटाएं
  3. एक अहसास हूँ
    आशीषों की चादर सी, कछुए के कवच सी,
    रोशनी की चमक सी, धरा की धनक सी
    तुम्हारे दुख मे, तुम्हारे सुख में,
    तुम्हारे साथ जीती,
    तुम्हारी एक परछाईं हूँ।
    ---मन से उठती एक गुबार को सुंदर तरीके से शब्दों में पिरोया है आपने। बहुत ही सुंदर परछाईं, काश! मुझे मिली होती।।।।।।

    जवाब देंहटाएं
  4. मेरी रचना को मान देने के लिए‎ बहुत बहुत‎ आभार पुरुषोत्तम जी .

    जवाब देंहटाएं

मेरी लेखन यात्रा में सहयात्री होने के लिए आपका हार्दिक आभार 🙏

- "मीना भारद्वाज"