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सोमवार, 30 जनवरी 2017

"ग़ज़ल"

 कुहरे में डूबी पगडंडी ,
सूखे पत्तों पर चलने से चरमराहट ।

अलसाए से कदमों से चहलकदमी ,
जगजीत सिंह की ग़ज़लों की गुनगुनाहट ।

आपा-धापी की दुनिया से बाहर निकल ,
फुर्सत के लम्हें फिर से जीए जाएँ ।

लम्बी खामोशी के बाद मन की कुछ ,
कहने सुनने को हम भी कुछ गुनगुनाए ।
तभी अन्तर्मन के कोने से कानों में ,
मिठास घोलती एक आवाज आई ।

क्षितिज छोर की लालिमा दूर कहीं वादी में ,
किसी ने गालिब की भीगी सी गज़ल गाई ।


                    ×××××

मंगलवार, 24 जनवरी 2017

"परछाईं"

क्या तुम्हे पता है?
मै आज भी वैसी ही हूँ?
तुम्हे याद है?
मेरा होना ही तुम्हारे मन मे 
पुलकन सी,
भर जाया करता था।
मेरे ना होने पर,
तुम कितने बेकल हो जाया करते थे।
अकेलेपन का तंज,
तुम्हारी आवाज में छलका करता था।
आओ ! हाथ बढ़ा कर छू लो मुझे,
मैं आज भी वैसे ही लगती हूँ।
कभी-कभी लगता है,
मैं तुम्हारे लिये ...
कोहरे की चादर सा,
एक अहसास हूँ
आशीषों की बौछार सी
कछुए के कवच सी,
रोशनी की चमक सी
धरा की धनक सी
तुम्हारे दुख मे, तुम्हारे सुख में,
तुम्हारे साथ जीती-जागती
तुम्हारी ही परछाईं हूँ।


XXXXX

बुधवार, 18 जनवरी 2017

“गुजारिश”

गेसुओं में फिरती अंगुलियों की गर्माहट ,
दबे सुर में लोरी की गुनगुनाहट ।
आँखों में जलन सी भरी है ,
एक अंजुरी भर नींद की भेजो ना ।।
भूली-बिसरी यादों की  ,
गाँठ लगी गठरी ।
घर के किसी कोने में ,
बेतरतीब सी रखी है ।।
एक गुजारिश है तुमसे  ,
मेरी अनमोल सी थाती को ।
मेरे अहसासों से भरी
नेह भरी पाती को ।
वक्त की गर्द से निकाल
मुझ तक भेजो ना ।।

XXXXX

रविवार, 15 जनवरी 2017

"माँ"

दूर देश जा बैठी हो माँ!
यादों मे अब तो तुम्हारा
अक्स भी धुंधला पड़ गया है
सावन की तीज के झूले
अक्सर तुम्हारी याद दिलाते हैं
तुम्हारा और भाई का प्यार
उसी दिन तो बरसता था
मोटी रस्सी से बना झूला
पहले उसी के बोझ को
परखता था
कल ही किसी ने कहा था
मुझे "माँ"पर कुछ कहना है
माँ का प्यार, माँ के संस्कार
कुछ तो दे कर, कह कर जाती माँ.
कैसे कहूँ सब के बीच
तुम्हारी बहुत याद आती है माँ!


XXXXX

बुधवार, 4 जनवरी 2017

“बाढ़”

सुना कहीं से , शहर में कल रात
अचानक बाढ़ आ गई
प्राकृतिक आपदा है
कभी भी , कहीं भी
बिना चेतावनी के, आ जाती है
दुख की बात है
आती है तो विनाश और
भयावहता की लकीरें भी छोड़ जाती है
दुखी हम हैं तो बचाव के रास्ते भी
हमें ही तलाशने होंगे
ईंट-पत्थरों के नहीं
संस्कारों के भवन बनाने होंगे
सजग हौंसलों और दृढ़ संकल्प की
दरकार होगी
आरोपों-प्रत्यारोपों से नही
मानवीय गुणों से जिन्दगियाँ
आबाद  होंगी .

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