कुहरे में डूबी पगडंडी ,
सूखे पत्तों पर चलने से चरमराहट ।
अलसाए से कदमों से चहलकदमी ,
जगजीत सिंह की ग़ज़लों की गुनगुनाहट ।
आपा-धापी की दुनिया से बाहर निकल ,
फुर्सत के लम्हें फिर से जीए जाएँ ।
लम्बी खामोशी के बाद मन की कुछ ,
कहने सुनने को हम भी कुछ गुनगुनाए ।
तभी अन्तर्मन के कोने से कानों में ,
मिठास घोलती एक आवाज आई ।
क्षितिज छोर की लालिमा दूर कहीं वादी में ,
किसी ने गालिब की भीगी सी गज़ल गाई ।
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