कई बार हमें
सीमाओं का ज्ञान नही होता।
सीमाओं का ज्ञान नही होता।
अधिकार और कर्त्तव्य का
भान नही होता।।
भान नही होता।।
अधिकार तो चाहिए
क्योंकि जन्मसिद्ध हैं।
क्योंकि जन्मसिद्ध हैं।
मगर कर्त्तव्य क्यों नही?
वह भी तो स्वयंसिद्ध हैं।।
वह भी तो स्वयंसिद्ध हैं।।
दोनों एक डोर से बंधे हैं
साथ ही रहेंगे।
साथ ही रहेंगे।
यदि चाहिए इनमें से एक
तो बिखराव भी हम ही सहेंगे।।
तो बिखराव भी हम ही सहेंगे।।
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नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (06-09-2021 ) को 'सरकार के कान पर जूँ नहीं रेंगी अब तक' (चर्चा अंक- 4179) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। रात्रि 12:01 AM के बाद प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।
यदि हमारे द्वारा किए गए इस प्रयास से आपको कोई आपत्ति है तो कृपया संबंधित प्रस्तुति के अंक में अपनी टिप्पणी के ज़रिये या हमारे ब्लॉग पर प्रदर्शित संपर्क फ़ॉर्म के माध्यम से हमें सूचित कीजिएगा ताकि आपकी रचना का लिंक प्रस्तुति से विलोपित किया जा सके।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
चर्चा मंच पर मेरे सृजन को साझा करने हेतु सादर आभार।
जवाब देंहटाएंवाह,सुंदर अति सुंदर बात कही है आपने । बहुत बहुत बधाई मीना जी सुंदर कृति के लिए ।
जवाब देंहटाएंसराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार जिज्ञासा जी, सस्नेह वन्दे ।
हटाएंसही कहा दी आपने बहुत ही सुंदर सृजन।
जवाब देंहटाएंसादर
सराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार अनीता जी, सस्नेह वन्दे ।
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