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मंगलवार, 22 नवंबर 2016

"चिन्तन"


दीवार की मुंडेर पर बैठ
आजकल रोजाना एक पंछी
डैने फैलाए धूप सेकता है
उसे देख भान होता है
उसकी जिन्दगी थम सी गई है
थमे भी क्यों ना ?
अनवरत असीम और अनन्त
आसमान में अन्तहीन परवाजे़
हौंसलों की पकड़ ढीली करती ही हैं
कोई बात नही……,
विश्रान्ति के पल हैं
कुछ चिन्तन करना चाहिए
परवाजों को कर बुलन्द
पुन: नभ को छूना चाहिए .

XXXXX

शनिवार, 19 नवंबर 2016

"धरोहर"

तुम्हारे मीठे-तीखे शब्दों की एक
खेप को बड़ा संभाल के रखा था।
सोचा, कभी मिलेंगे तो
मय सूद तुम्हें लौटा दूंगी।
अचानक कल तुम मिले भी
अचेतन मन ने धरोहर टटोली भी।
मगर तुम्हारी धरोहर लौटाने से पहले ही
भावनाओं के दरिया की बाढ़ बह निकली।
और मैं चाहते हुए अनचाहे में ही सही
फिर से तुम्हारी कर्ज़दार ही ठहरी।



XXXXX

बुधवार, 16 नवंबर 2016

"मूल्य"

जीवन मूल्य, नैतिक मूल्य, वस्तु मूल्य
जन्म से ही मानव मूल्यों से बंधा है
कभी ये मूल्य तो कभी वो मूल्य
सदैव उसके साथ चलता है
जिन्दगी का हर चरण
इन्ही मूल्यों तले घिसता है
अपनी पहचान की खातिर मानव
लम्हा-लम्हा छीजता है
भौतिकता के इस युग में
बस वस्तु मूल्य ही जीतता है ।।


XXXXX

गुरुवार, 10 नवंबर 2016

“सच"

सुना था कभी
साहित्य समाज का दर्पण होता है
अक्स सुन्दर हो तो
गुरुर बढ़ जाता है
ना हो तो
नुक्स बेचारा दर्पण झेलता है
सोच परिपक्वता मांगती है
आईना तो वही दर्शाता है
जो देखता है
झेला भोगा अनुभव कहता है
उमस और घुटन का कारण
हमारी सोचों के बन्द दरवाजे हैं
हवाएँ ताजी और सुकून भरी ही होंगी
दरवाजे और खिड़कियाँ खोलने की जरुरत भर है
हम से समाज हम से प्रतिबिम्ब
तो दोष के लिए ऊँँगली का इशारा
किसी एक की तरफ ही क्यों है ।।


XXXXX

शनिवार, 5 नवंबर 2016

"अन्तर"

बचपन में स्कूल से आकर अपना बैग पटकते हुए मैनें शिकायती लहज़े में माँ से कहा - “तुम मुझ में और भाई में भेद-भाव रखती हो , उसको शाम तक भी घर से बाहर आने-जाने की छूट और मुझे नही.” माँ ने निर्लिप्त भाव से मेरी ओर देखते हुए पूछा-”आज यह सब कहाँ से भर लाई है कूड़ा-कबाड़ दिमाग में।’
             “स्कूल में “समाज में लिंगभेद’ पर स्पीच थी , उसमें यह बात भी थी कि लड़कियों को लड़को से कम समझा जाता है । लड़कों को ज्यादा सुविधाएँ मिलती हैं।” और यह बात सच भी है मुझे बाहर कहाँ खेलने जाने देती हो तुम.
                                                     माँ ने बड़ी सहजता से कहा-”भाई के हर महिने बाल कटाती हूँ , तेरे बाल लम्बे हैं ,भरी दोपहरी या शाम को गलियाँ सुनसान होती हैं ऐसे समय-कुसमय बुरी आत्माएँ घूमती हैं इसलिए लड़कियों को बाहर जाने से रोका जाता है ।“ बाकी तू जानती है मैनें खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने में कभी भेद नही किया तुम दोनों में। बाल-सुलभ जिद्द वही की वही रुक गई क्योंकि मुझे भूत-प्रेतों के नाम से ही डर लगता था यूं भी लाईट जाते ही मैं उल्टा-सीधा जैसा भी याद था
हनुमान-चालीसा बुदबुदाना शुरु कर देती थी।
                                   माँ की बात सही भी थी माँ को मैनें मेरे परीक्षा-परिणाम पर सदा खुश होते ही देखा। छोटे भाई और बहन को बड़े भइया की बजाय अच्छे से मैं रखूंगी इस बात का विश्वास था उन्हें। कई बार वाद-विवाद तो कई बार निबन्ध प्रतियोगिताओं में दहेज-प्रथा और लड़के-लड़की के मध्य असमानता जैसे विषय उठ जाया करते थे । नारी जाति के प्रति उपेक्षित व्यवहार की चर्चा कक्षा-कक्षों में भी होती थी और मैं स्कूल से आते ही राम चरित मानस या गीता-पाठ करती माँ के पास अपना रोष व्यक्त करने पहुँच जाती मानो मेरी जिद्द थी कि मैं माँ को साबित कर दिखाऊँ कि अन्तर है समाज में नारी और पुरुष वर्ग में ।
                     माँ शान्ति से मेरी बात सुनती और समझाती कि अवसर की समानता लड़कियों पर भी निर्भर है।वैदिक काल में मैत्रेयी,अपाला, गार्गी और विश्ववारा जैसी विदुषियाँ ऋषियों के समकक्ष थीं। माँ दुर्गा,लक्ष्मी और सरस्वती भी स्त्रियाँ ही हैं ना….,और तू ये गाती फिरती है -”खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।” यह भी तो लड़की ही थी ना । मैं कई बार उनके सामने हथियार डाल देती और कई बार अपनी बुध्दि
अनुसार नए तर्क खोजने लगती।
                                                   आज मैं बड़ी हो गई हूँ , माँ भी नही रही। घर-परिवार में  भी लड़कियाँ हैं , कुछ बड़ी हैं और कुछ बड़ी हो रही हैं मगर सवाल आज भी वही हैं। जिद्द भी वही है कि समाज में लिंगभेद असमानता है । लड़कियों के लिए विकास के अवसर कम है वगैरा-वगैरा । कई अवसर होते है ऐसे जब माँ के समझाने का ढंग याद आता है। असमय निर्जन स्थानों पर होने वाली महिलाओं के साथ दुर्घटनाएँ..  ,अक्सर माँ के बाहर जाने से रोकने के तर्क की याद  दिलाती है।अवसर की समानता के लिए वैदिक युग की विदुषियों के उदाहरण , सम्मान और सशक्तिकरण के लिए त्रिशक्ति और आवश्यकता पड़ने पर रानी लक्ष्मी बाई।
                                            आज की भागती-दौड़ती दुनियाँ में शायद वक्त ही नही है किसी के पास बालमन की जिज्ञासाओं को शान्त करने का।
                                        “Don’t argue . चुप्प कर , ये कौन सा project है ?अपनी tuition-teacher.से पूछ लेना “ जैसे जुमले सुनने को मिल जाते हैं। सवाल आज भी वही हैं बस जवाब देने के ढंग में अन्तर आ गया है शायद ।

XXXXX                       

गुरुवार, 3 नवंबर 2016

"बोन्साई"

एक मुद्दत पहले गीली माटी में
घुटनों के बल बैठ कर
टूटी सीपियों और शंखों के बीच
अपनी तर्जनी के पोर से
मैंंने तुम्हारा नाम लिखा था

यकबयक मन में एक दिन
अपनी नादानी देखने की
हसरत सी जागी तो पाया

भूरी सूखी सैकत के बीच
ईंट-पत्थरों का जंगल खड़ा था
और जहाँ बैठ कर कभी
मैंंने तुम्हारा नाम लिखा था वहाँ
मनमोहक सा एक
बोन्साई का पेड़ खड़ा था ।।


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