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गुरुवार, 27 अक्टूबर 2016

"यादें-2"


सुरमई सांझ,सोने सी थाली सा ढलता सूरज
तरह-तरह की आकृतियों से उड़ते पंछी
घरों से उठता धुँआ,
चूल्हों पे सिकती रोटियों की महक
गलियों में खेलते बच्चे
माँ की डाँट,खाने की मीठी मनुहार
जाने कहाँ खो गए
एक दूसरे से आगे जाने की होड़
जिन्दगी की भागमभाग,
सब कुछ पा लेने की स्पर्धा मे
हम कुछ थे कुछ और हो गए
अठखेलियाँ करता बचपन,
बादलों में तस्वीरें बनाने की कल्पना
जाने कहाँ रह गई
पछुआ पवनों की सिहरन,
बरखा की बूँदों की छम-छम के साथ खिलती  हँसी
ना जाने कौन दिशा में बह गई
पूर्णिमा की सांझ,
मेरे साथ चलता चाँद
चाँद में चरखा कातती बुढ़िया,
नीम का पेड़
यादों में डूबा मन
रोशनी के उजालों मे,
भागती भीड़ में ,यातायात के जाम में
ना जाने कहाँ खो गया
शरद पूर्णिमा का चाँद,
चाँदनी में सुई पिरोने का सपना
इस शहर की तरह अजनबियत
की चादर ओढ़ , मेरा साथ छोड़
किसी और का हो गया 

XXXXX

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- "मीना भारद्वाज"