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गुरुवार, 6 अक्टूबर 2016

“प्रकृति-1"

दुर्गम पहाड़ों की बलखाती पगडंडियाँ,
कोयल की कूक, आम की बौर से लदी अमराईयां,
झरनों की कलकल से गूंजती,
फूलों से महकती वादियां।
घनी ओस से भीगी राहें,
मक्का की सिकती सौंधी खुश्बू से भरी गलियाँ,
मोटे कम्बलों से ढके लोग,
गन्तव्य की ओर भागती मेहनतकशों की टोलियाँ।
गगन चूमते दरख्तों के बीच झांकता चाँद,
गिरि तलहटियों में सोये बादल
आज खामोश से क्यों हैं?
मन को आकर्षण में बाँधतें पल
गहरी घाटियों में सोयी प्रकृति
इतनी मौन क्यों है?


XXXXX

2 टिप्‍पणियां:

मेरी लेखन यात्रा में सहयात्री होने के लिए आपका हार्दिक आभार 🙏

- "मीना भारद्वाज"