तेरे से बंधी मन की डोर
कई बार मुझे
तेरी ओर खींचती है
जी चाहता है
तेरी गलियों के फेरे लगाऊँ
जाने-पहचाने चेहरे देख मुस्कराऊँ
जो अपने थे रणछोड़ हो गए
तेरे गली-कूंचे कुछ और थे
अब कुछ और हो गए
हवाएँ बदली , राहें अजनबी सी हैं
तेरा बेगानापन मेरा सुकून छीन लेता है
तुझसे बँधा थागा , मन पुनः अपनी ओर खींच लेता है .
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आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शुक्रवार 25 सितम्बर 2016 को लिंक की गई है.... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार विरम सिंह जी .
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर ..
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर ..
जवाब देंहटाएंधन्यवाद उपासना जी !
जवाब देंहटाएंजी चाहता है
जवाब देंहटाएंतेरी गलियों के फेरे लगाऊँ
जाने-पहचाने चेहरे देख मुस्कराऊँ
गजब के जज्बात। बेहतरीन... बेमिसाल.... लाजवाब....
रचना सराहना के लिए हृदयतल से धन्यवाद संजय जी .
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