बादलों की चादर ओढ़े
आजकल वह बीमार सा दिखता है
हल्के नीलेपन संग
छिटपुट अश्रुकण यत्र-तत्र बिखरे
गीलेपन का अहसास दिलाते हैं ।
बावरा मन, मन का क्या?
मन तो खानाबदोश है
कितनी बार समझाया
पुरातन आवरण उतार देखो
सुनहरी धूप की चमक तीखी है ।
बर्फ भी पिघलने लगी है
मन की गाँठें खुलने लगी हैं
कागज के पुल बनने लगे हैं
रिश्तों की गठरी खोल दो
उसे भी अपनेपन की धूप दो ।
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- "मीना भारद्वाज"