बचपन अपने आप मे एक सम्पूर्ण जीवन है. अनोखी कल्पनाएँ-बड़े होकर दुनिया का सब से बड़ा इन्सान बनने का सपना,ऐसे संसार की कल्पना जहाँ सारी कायनात केवल अपनी मुट्ठी मे कर लेने की कुव्वत,कुछ सोचना दूसरे ही पल उसे पाने का उल्लास बचपन का यथार्थ है बड़प्पन मे ये खुशियाँ कहीं खो जाती है.
बालपन में माँ की साड़ी का पल्लू पकड़ कर बाजार
जाना,कपड़ों की दुकान मे अपने पसन्दीदा रंग के कपड़ों की तरफ अंगुली करना और उसे पा लेने पर खुशी से झूम उठना अक्सर याद आता है.अपनी कलाई की पहली घड़ी और दिल की धड़कनों के साथ घड़ी की टिक-टिक का मखमली अहसास आज भी ना जाने कितने दिलों में सिहरन पैदा करता होगा मगर ये सब बातें ,अहसास 70के दशक से 21वीं सदी की शुरुआत की बातें हैं. आज के दौर में ये बातें बेमानी हैं .पैसे की कीमत दिनोंदिन महत्वहीन हुई है. जो चीजें होश संभालने के बाद की बातें थी ; क़क्षा में अव्वल आने की खुशी की थी वे सब आज स्टेटस सिम्बल बन गई हैं . घड़ी पहनने के लिये कक्षा मे अव्वल आना अनिवार्य नही रह गया है. कपड़ों की रंगीन झिलमिलाहट का मखमली अहसास, माँ के हाथों से बने खिलौनों की चमक वक़्त के साथ कहीं खो सी गई मैं यह नही कहती कि सब कुछ गलत है और आज की तरक्की, तरक्की नही है. मेरा मानना है कि बरगद,पीपल की छाँव अब कहीं खो सी गयी है. बोनसई वृक्षों की भरमार हो गई है जो मूल का ही रुप भी हैं और पहले से अधिक कहीं खूबसूरत भी मगर नींव के साथ जुड़कर समाज को सुख देने के स्थान पर बेशकीमती सामानों से सजे मॉल्स और बड़े-बड़े बंगलों के स्वागत-कक्षों की शोभा बढाने मे ज्यादा सफल हैं .जिन्हे देख कर मेरे जैसे लोग कह उठते हैं-"बिलकुल वैसा ही है जैसा अपने गाँव मे स्कूल से आते रास्ते मे पड़ता
था ; पता है स्कूल से आते बारिश और धूप मे हम इनके नीचे खड़े हो जाते थे.” और बात पूरी होने से पहले ही अचानक घूरने के अहसास से बगल में खड़े व्यक्ति की अजीब सी नजरों से बचते हुए मैं खामोशी की चादर ओढ़ कर आगे बढ़ जाया करती हूँ.