क्षिlतिज पार -
शक्रचाप को देख
रवि मुस्काया ।
हरी दूब में -
तिनके बटोरती
नन्ही गौरैया ।
रिक्त गेह में -
नीम पर चहके
नव जीवन ।
प्यासा पपीहा -
ताके नभ की ओर
भरी धूप में ।
ढलती साँझ -
सागर की गोद में
सोया सूरज ।
***
क्षिlतिज पार -
शक्रचाप को देख
रवि मुस्काया ।
हरी दूब में -
तिनके बटोरती
नन्ही गौरैया ।
रिक्त गेह में -
नीम पर चहके
नव जीवन ।
प्यासा पपीहा -
ताके नभ की ओर
भरी धूप में ।
ढलती साँझ -
सागर की गोद में
सोया सूरज ।
***
कभी-कभी सोचती हूँ
जीवन क्या है ?
एक रंगहीन सा
ख़ाली कैनवास …,
जिसको जन्म से साथ लेकर
पैदा होता है इन्सान
समय के साथ..,
अनुभवों से लबरेज़
अनगिनत रंग भरी कटोरियाँ
उम्र भर..,
इसके फलक पर निरन्तर
ढुलकती रहती हैं
और फिर…,
तैयार होती है -
कुदरत की अद्भुत,अकल्पनीय
आर्ट-गैलरी ..,
जिसमें समाहित है
अपने आप में विविधताओं से परिपूर्ण
अनेकों लैण्डस्केप..,
प्रकृति में यह प्रक्रिया अनवरत
बिना रूके , बिना गतिरोध
चलती रहती है
शायद..,
इसी का नाम जीवन है
***
नभ-आँगन
कोजागरी यामिनी
पूर्ण मयंक
आँख मिचौली खेले
अभ्र ओट मे
प्रफुल्लित हर्षित
साँवली घटा
देख ज्योत्सना छटा
धरा गोद में
रवितनया तीरे
श्री जी के संग
महारास में लीन
कृष्ण मुरारी
यशुमति नन्दन
शत शत वन्दन
***
धारा समय की दिनोंदिन
आगे बढ़ती जाएगी
सच कहूँ ..,
बीते दिनों की बहुत याद आएगी
पता था ये दिन
आगे ऐसे न रहेंगे
बदलेंगे कल हम
पहले जैसे न दिखेंगे
देखते ही देखते
अजनबीयत बढ़ती जाएगी
सच कहूँ ..,
बीते दिनों की बहुत याद आएगी
कच्ची सी धूप को
वक़्त पर पकना ही था
व्यवहारिक से दायरों में
हम सबको बँधना ही था
संबंधों में अनुबंधों की
कहानी दोहराई जाएगी
सच कहूँ..,
बीते दिनो की बहुत याद आएगी
***
उलझी हुई “जिग्सॉ पजल” लगती है जिन्दगी
जब इन्सान अपनी समझदारी के फेर में
रिश्तों को सहूलियत अनुसार खर्च करता है ।
*
सुनामी की लहरों सरीखी है लिप्सा की भूख
कल ,आज और कल का कड़वा सच
युद्धों का पेट मानवता को खा कर भरता है ।
*
अच्छी बात तो नहीं
फ़िज़ूल बातों को तूल दिया जाए
व्यर्थ की बहस क्यों बढ़ाएँ
नहीं बनती आपस में तो
कोई बात नहीं..,
फिर से अजनबी हो जाएँ
अनावश्यक औपचारिकताओं में
उलझना कैसा..?
मिलते-जुलते नहीं विचार
तो इस बारे में अधिक
सोचना क्या..?
सुने मन की और मन की करते जाएँ
वक़्त का तक़ाज़ा है
अपनी मुट्ठी बाँध के रखना
खोल कर मुट्ठी
क्यों अपना सामर्थ्य कमजोर करना
अच्छा है खुद पर यक़ीन ..,
जब तक जीयें अपने पर यक़ीन करते जाएँ
***
बालपन में पापा के
काफ़ी नज़दीक होती हैं
बेटियाँ..,
सारे आकाश के चन्दोवे सा
लगता है
उन्हें पापा का हाथ
जिसके तले
सरदी,गरमी और बरसात में
महफ़ूज़ समझती हैं
वे अपने आपको..,
दिन भर कामों में उलझी
माँ का व्यक्तित्व उनको
पापा के समक्ष गौण सा लगता है
लेकिन ..,
जैसे ही बेटियाँ
बचपन की दहलीज़ से
बड़प्पन के आँगन में जुड़ती है
तब ..,
जीवन की परिभाषा
बदल सी जाती है
अनुभूत जीवनानुभव..,
उनको माँ के अस्तित्व का
बोध कराते हैं
और तब बेटियों को
पूरे घर को सरल सहज भाव से
एक सूत्र में जोड़ती
माँ के आगे
पापा उलझे-उलझे
नज़र आते हैं
***